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Blog / 08 Jan 2020

(आर्थिक मुद्दे) बैंकिंग पर रिज़र्व बैंक की बड़ी चुनौतियाँ (Reserve Bank Major Challenges on Banking)

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(आर्थिक मुद्दे) बैंकिंग पर रिज़र्व बैंक की बड़ी चुनौतियाँ (Reserve Bank Major Challenges on Banking)


एंकर (Anchor): आलोक पुराणिक (आर्थिक मामलों के जानकार)

अतिथि (Guest): अनिल कुमार उपाध्याय (बैंकिंग मामलों के जानकार), स्कंद विवेक धर (आर्थिक पत्रकार, हिंदुस्तान)

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, रिजर्व बैंक ने दो बहुत ही महत्वपूर्ण रिपोर्ट जारी किए। इनमे 20वां ‘वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट’ और ‘भारत में बैंकिंग की प्रवृत्ति और प्रगति पर रिपोर्ट – 2018-19’ शामिल है।

वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट यानी FSR को भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा हर 6 महीने पर प्रकाशित किया जाता है। इस रिपोर्ट में वित्तीय स्थिरता और विकास परिषद यानी FSDC की सब-कमिटी के सामूहिक मूल्यांकन को दिखाया जाता है। साथ ही इसमें वित्तीय स्थिरता की जोखिमों और फ़ाइनेंशियल सेक्टर के लचीलेपन के बारे में भी बताया गया है। इसके अलावा इसमें फ़ाइनेंशियल सेक्टर के विकास और रेगुलेशन से जुड़े मसलों पर भी चर्चा की गई है।

RBI की दूसरी रिपोर्ट में सहकारी बैंकों और NBFCs समेत पूरे बैंकिंग सेक्टर के परफॉर्मेंस को पेश किया गया है। इसमें 2018-19 और 2019-20 की अब तक की अवधि के आंकड़ों को शामिल किया गया है। साथ ही यह रिपोर्ट भारत के वित्तीय क्षेत्र के लिए विकसित संभावनाओं पर एक नज़रिया भी पेश करती है।

क्या कहती है मौजूदा वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट?

प्रणालीगत जोखिमों का समग्र आकलन

घरेलू मंदी के बावजूद भारत की वित्तीय प्रणाली में स्थिरता बनी हुई है। सरकार द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में पैसा लगाने के बाद बैंकिंग क्षेत्र के लचीलेपन में सुधार हुआ है। हालांकि वैश्विक/घरेलू आर्थिक और स्थिरता और भू-राजनीतिक गतिविधियों के चलते थोड़ा रिस्क ज़रूर बना हुआ है।

वैश्विक और घरेलू मैक्रो माइक्रो फ़ाइनेंशियल रिस्क

तमाम वैश्विक कारणों मसलन ब्रेक्सिट सौदे में देरी, ट्रेड वॉर, मंदी का डर, तेल-बाजार में व्यवधान और भू-राजनीतिक जोखिमों के चलते घरेलू स्तर पर मंदी छाई रही। इन अनिश्चितताओं ने उपभोक्ता विश्वास और व्यापार को लेकर मानसिक दशा को काफी प्रभावित किया। साथ ही इससे निवेश के इरादे भी कमजोर पड़े। रिजर्व बैंक के मुताबिक जब तक इन अनिश्चितताओं से ठीक से नहीं निपटा जाएगा तब तक विकास पर एक दबाव बने रहने की आशंका है।

घरेलू अर्थव्यवस्था के संबंध में 2019-20 की दूसरी तिमाही में सकल मांग में कमी आई, जिससे मंदी छाई रही। हालांकि कैपिटल इनफ्लो की उम्मीद सकारात्मक बनी हुई है। वैश्विक मंदी के चलते भारत के निर्यात को मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। लेकिन इंधनों की घटती कीमतों के चलते चालू खाता घाटा काबू में रहने की संभावना है। इन हालातों में खपत और निवेश को बढ़ावा देना एक अहम चुनौती होगी।

वित्तीय संस्थान: प्रदर्शन और जोखिम

सितंबर 2019 में शेड्यूल्ड कमर्शियल बैंकों की कर्ज़ वृद्धि दर 8.7 फ़ीसदी बनी रही, जबकि निजी क्षेत्र के बैंकों में यही दर 16.5 फ़ीसदी पर रही।

सरकार द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में पैसा लगाए जाने के बाद बैंकों के पूंजी पर्याप्तता अनुपात में काफी सुधार देखने को मिला।

मार्च और सितंबर 2019 के बीच सरकारी बैंकों का ग्रॉस एनपीए (GNPA) अनुपात 9.3 फ़ीसदी पर बना रहा। हालांकि रिजर्व बैंक ने आशंका व्यक्त की है कि सितंबर 2020 तक समग्र डूबत कर्ज अनुपात बढ़कर 9.9 प्रतिशत हो सकता है।

वित्तीय क्षेत्र: विनियमन और विकास

रिज़र्व बैंक ने दबावग्रस्त आस्तियों (Stressed assets) के समाधान और भुगतान की आधारिक संरचना के विकास के लिए कई कदम उठाए हैं। इनमें एनबीएफसी के लिए Liquidity management system शुरू करने, बैंकों की गवर्नेंस कल्चर में सुधार लाने हेतु नीतिगत उपाय शामिल हैं ।

‘भारत में बैंकिंग की प्रवृत्ति और प्रगति पर रिपोर्ट – 2018-19’ की प्रमुख बातें

शेड्यूल्ड कमर्शियल बैंकों के ग्रास एनपीए अनुपात में मार्च 2018 के 11.2 फ़ीसदी के मुकाबले मार्च 2019 में 9.1 फ़ीसदी तक कमी देखने को मिली। और 2019-20 की पहली छमाही में इसमें बेहतरी देखने को मिली। ग्रॉस एनपीए में सुधार की वजह आईबीसी कोड को बताया गया।

  • सरकार द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में पैसा लगाए जाने के चलते बैंकों की पूंजी की स्थिति में काफी सुधार हुआ है।
  • एनपीए में बढ़ोतरी और मुनाफे में कमी के चलते सहकारी बैंकिंग क्षेत्र की स्थिति थोड़ी कमजोर हुई। रिपोर्ट में बताया गया है कि कम पूंजी, कमजोर प्रबंधन व्यवस्था, फ्राड कांडों को रोकने में नाकामी, नयी तकनीक अपनाने में देरी, निगरानी आदि की अपर्याप्त व्यवस्था के चलते शहरी कोआपरेटिव बैंक समस्या में पड़ते हैं।
  • एनबीएफसी द्वारा कर्ज दिए जाने की गति में मंदी बनी रही, हालांकि पूंजी बफ़र निर्धारित मानदंडों से ऊपर रहे। बैंक ऋण एनबीएफसी के लिए वित्त पोषण का एक स्थिर स्रोत रहा।

वित्तीय प्रणाली क्या होती है?

किसी भी अर्थव्यवस्था में, वित्तीय प्रणाली के ज़रिये उस अर्थव्यवस्था में होने वाले बचतों को जुटाकर अंतिम उधारकर्ताओं या निवेशकों तक कारगर रूप से पहुंचाया जाता है। यह प्रणाली वित्त बाजारों और संस्थाओं के एक नेटवर्क के जरिए संचालित होती है। मोटे तौर पर, वित्तीय बाज़ार को मुद्रा बाजार, पूंजी बाजार और ऋण बाजार के रूप में बांटा जाता है।

  • मुद्रा बाजार में अल्पावधि निधियों यानी शार्ट टर्म फंड्स का लेन-देन किया जाता है, जबकि पूंजी बाजार में दीर्घावधि निधियों यानी लॉन्ग टर्म फंड्स का लेन-देन किया जाता है।
  • ऋण बाजार में बैंक, वित्तीय संस्थाओं और एनबीएफसी के ज़रिए कॉर्पोरेट और व्यक्तिगत उद्द्येश्यों के लिए लघु, मध्यम और लंबी अवधि का क़र्ज़ दिया जाता है।
  • मुद्रा बाजार के कामों का रेग्युलेशन भारतीय रिजर्व बैंक करता है। और पूंजी बाजार का रेग्युलेशन भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड यानी सेबी करता है।
  • ऋण बाज़ार का रेग्युलेशन कई अलग-अलग संस्थाएं करती हैं, लेकिन ज़्यादातर रेग्युलेशन भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा ही किया जाता है। कुछेक वित्तीय कारोबार के लिए विशेष रेग्युलेटर हैं।

भारतीय वित्तीय प्रणाली के घटक

भारतीय वित्तीय प्रणाली के अहम् घटक है:

बैंक: बैंक भारत में संस्थागत क़र्ज़ का सबसे अहम् ज़रिया हैं और इनमें अनुसूचित वाणिज्यिक बैंक, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक, सहकारी बैंक, विदेशी बैकों सहित निजी क्षेत्र के बैंक शामिल हैं।

वित्तीय संस्थाएं: राष्ट्रीय और राज्य दोनों स्तरों पर कई वित्तीय संस्थाएं बनाई गई हैं। ये संस्थाएं उद्योग जगत की कई वित्तीय ज़रुरतों को पूरा करती हैं। इनमें अखिल भारतीय विकास बैंक, विशिष्ट वित्तीय संस्थाएं, निवेश संस्थाएं, राज्य वित्त निगम तथा राज्य औद्योगिक विकास निगम शामिल हैं।

गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (NBFCs): गैर-बैंकिंग वित्त कंपनियां ऐसी संस्थाएं होती हैं जो कंपनी अधिनियम 1956 के तहत रजिस्टर्ड होती हैं और जिनका मुख्य काम उधार देना और विभिन्न प्रकार के शेयरों, प्रतिभूतियों, बीमा कारोबार और चिटफंड से जुड़े कामों में निवेश करना है।

जोखिम पूंजी कंपनियां और उद्यम पूंजी कंपनियां: जोखिम पूंजी कंपनियां नये उद्यमियों को दीर्घकालीन प्रारंभिक पूंजी उपलब्ध कराती हैं। वहीँ उद्यम पूंजी, लघु और मध्यम उद्यमों के गठन के लिए और उनके विकास के प्रारम्भिक चरणों में फंडिंग का अहम् ज़रिया है।

गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों की चुनौती

ग़ौरतलब है कि आरबीआई रेग्युलेशन के तहत देश में 12 हजार से अधिक एनबीएफसी पंजीकृत हैं। आईएलएंडएफएस समूह (IL&FS Group) की कंपनियों के डिफॉल्ट करने के बाद एनबीएफसी क्षेत्र नकदी की किल्लत का सामना कर रहा है। इसके अलावा एनबीएफसी और भी कई चुनौतियाँ का सामना कर रहीं हैं, मसलन -

  • सॉल्वेंसी जोखिम और फंडिंग की उच्च लागत
  • कुछ एनबीएफसी प्रवर्तक के स्तर पर भी चुनौतियों का सामना कर रही हैं।
  • कुछ एनबीएफसी की संपत्ति-इक्विटी का अनुपात आठ गुने से ज्यादा है यानी इनके क़र्ज़ बहुत ज़्यादा है
  • आईएलएंडएफएस मामले के बाद कई एनबीएफसी की क्रेडिट रेटिंग घटाई गई है ऐसे में इनकी मुश्किलें और बढ़ गई हैं
  • कुछ को लेनदारों से फंड मिलने में मुश्किल हो रही है।

आईएलएंडएफएस (IL&FS) मामला क्या है?

आईएलएंडएफएस सरकारी क्षेत्र की कंपनी है और इसकी कई सहायक कंपनियां हैं। इसे नॉन बैंकिंग फ़ाइनेंस कंपनी यानी एनबीएफसी का दर्जा हासिल है। ये कंपनी दूसरे बैंकों से लोन लेती है। और इस पैसे से इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स की फंडिंग करती है। सरकारी क्षेत्र की कंपनी होने के कारण इसकी विश्वसनीयता बहुत अधिक होती है। जिस वजह से इसे किसी तरह की गारंटी नहीं देनी पड़ती है।

गड़बड़ी ये हुई कि कंपनी ने छोटी अवधि में लौटाने वाला बहुत अधिक कर्ज़ ले लिया और उसकी आमदनी उतनी नहीं हो रही है। पूरे आईएलएंडएफएस ग्रुप पर करीब 91100 करोड़ रुपये का कर्ज है।

कंपनी के बॉन्ड्स में देश के करीब सभी म्युचुअल फंड्स, इंश्योरेंस कंपनियों और एनबीएफसी का पैसा लगा हुआ है। ऐसे में इन संस्थाओं के पैसे भी जोखिम के दायरे में आ गए हैं।

इसके कारण इक्विटी इंवेस्टर्स और दूसरे एनबीएफसी में भी उठा पटक मची है। बहरहाल कंपनी का नियंत्रण सरकार ने एक स्वायत्त बोर्ड को दे दिया है और सुधार की कोशिशें जारी हैं।

म्यूच्यूअल फंड क्या होता है?

दरअसल म्यूच्यूअल फंड में आम लोगों का पैसा इकट्ठा किया जाता है। और इस पैसे को आगे कैसे निवेश करना है इसकी जिम्मेदारी एक फण्ड मैनेजर को दी जाती है। ये फंड मैनेजर निवेश के मामलों का विशेषज्ञ होता है। ये मैनेजर शेयर या बांड में पैसे लगाकर ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाने की कोशिश करता है। और इस लाभ को उन लोगों में बांटा जाता है जिनका पैसा निवेश किया गया रहता है। इस तरह म्यूचुअल फंड के जरिए एक छोटा निवेशक भी विशेषज्ञ की सेवा का लाभ ले पाता है।

म्यूच्यूअल फंड की समस्या

एनबीएफसी में जो दिक्कतें पैदा हुईं हैं, इसका असर म्यूच्यूअल फंड पर भी देखा जा सकता है। क्योंकि इन म्यूच्यूअल फंड ने एनबीएफसी में काफी निवेश कर रखा था। आईएलऐंडएफएस, एस्सेल समूह, दीवान हाउसिंग समूह और अनिल अंबानी समूह में म्युचुअल फंडों का निवेश 20,000 करोड़ रुपये से ज्यादा है। चूँकि ये कंपनियां क़र्ज़ लौटाने में सक्षम नहीं हैं ऐसे में निवेशकों का भी जोखिम बढ़ गया है।

एक तरफ म्यूच्यूअल फंड द्वारा इन कंपनियों में लगाए गए फंड की रिकवरी नहीं हुई। दूसरी तरफ रीडम्पशन का दबाव बढ़ने से म्यूच्यूअल फंड कंपनियां दोहरी मुश्किल में घिर गईं हैं।

क्रेडिट रेटिंग एजेंसी क्या होती है?

क्रेडिट रेटिंग के ज़रिये किसी भी संस्था की कर्ज लेने या उसे चुकाने की क्षमता का मूल्यांकन किया जाता है। क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां परोक्ष रूप से यह बतातीं है कि कोई भी संस्था आर्थिक रूप से कितना मजबूत है और उसको कर्ज देना कितना जोखिम भरा होगा।

  • रेटिंग करते वक़्त ये एजेंसियां कंपनियों के वित्तीय उत्पादों मसलन बांड, सावधि जमा खाता और कुछ अन्य छोटी अवधि के ऋण दस्तावेजों का आकलन करती हैं।
  • मौजूदा वक़्त में भारत में 4 प्रमुख क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां काम कर रही हैं। इनमें क्रिसिल (CRISIL), इक्रा (ICRA), केअर (CARE) और डीसीआर इंडिया (DCR India) शामिल है।
  • इसी तरह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी कई क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां काम कर रही हैं। इस समय रेटिंग की दुनिया में तीन बड़े नाम हैं - स्टैण्डर्ड एंड पूअर, मूडीज़ और फ़िच।

इन क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों पर भी सवाल

आईएलएंडएफएस मामले के खुलासे के बाद इन क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों पर भी सवाल उठने लगे हैं। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि जब तक आईएलएंडएफएस की माली हालत उजागर नहीं हुई थी तब तक रेटिंग एजेंसियों ने इसे हाई रेटिंग दी थी और अब अचानक इसे घटा दिया। ये उन निवेशकों के साथ धोखा है, जो रेटिंग देखकर अपना पैसा निवेश करते हैं।

वित्तीय स्थिरता और विकास परिषद (FSDC)

इसका गठन दिसंबर 2010 में किया गया था। और इसकी अध्यक्षता केंद्रीय वित्त मंत्री द्वारा की जाती है। परिषद वित्तीय स्थिरता, वित्तीय क्षेत्र के विकास, अंतर-नियामक समन्वय और वित्तीय साक्षरता के लिए काम करता है। इसके सदस्यों में शामिल होते हैं:

  • भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर,
  • वित्त सचिव,
  • आर्थिक मामलों के विभाग के सचिव,
  • वित्तीय सेवा विभाग के सचिव,
  • मुख्य आर्थिक सलाहकार,
  • वित्त मंत्रालय,
  • सेबी के अध्यक्ष,
  • इरडा के अध्यक्ष,
  • पी.एफ.आर.डी.ए. के अध्यक्ष

भारतीय रिजर्व बैंक पर मूलभूत जानकारी

परिचय

भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) देश का केन्द्रीय बैंक है। भारतीय रिजर्व बैंक की स्थापना 1935 में बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1934 के तहत 5 करोड़ रूपए की शुरूआती धनराशि के साथ की गई थीl बाद में, कुछ सीमित लोगों के हाथों में शेयरों के केन्द्रीयकरण को रोकने के लिए 1 जनवरी 1949 को भारतीय रिजर्व बैंक का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।

आरबीआई के कार्य

भारतीय रिज़र्व बैंक के कई प्रमुख कार्य हैं जैसे कि मौद्रिक नीति तैयार करना, उसको लागू करना और उसकी निगरानी करना, वित्तीय प्रणाली का रेगुलेशन और निगरानी करना, विदेशी मुद्रा का प्रबन्धन करना, मुद्रा जारी करना, उसका विनिमय करना और परिचालन योग्य न रहने पर उन्हें नष्ट करनाl इसके अलावा आरबीआई साख नियन्त्रित करने और मुद्रा के लेन देन को नियंत्रित करने का कार्य तथा सरकार के बैंकर और बैंकों के बैंकर के रूप में भी काम करती है।

आरबीआई की संरचना

रिज़र्व बैंक का कामकाज केन्द्रीय निदेशक बोर्ड द्वारा शासित होता है। भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम की धारा 8 के अनुसार बोर्ड के सदस्यों को भारत सरकार द्वारा नियुक्त किया जाता है। आरबीआई के प्रशासनिक अधिकारी के रूप में सीबीडी (Central Board of Directors) के अंतर्गत आधिकारिक निदेशक और गैर-आधिकारिक निदेशक - दो प्रकार के बोर्ड होते हैं। आधिकारिक निदेशक के अंतर्गत जहाँ एक पूर्णकालिक गवर्नर और अधिकतम चार उप गवर्नर शामिल होते हैं। वहीँ गैर आधिकारिक-निदेशक के अंतर्गत सरकार द्वारा नामित विभिन्न क्षेत्रों से दस निदेशक और एक सरकारी अधिकारी शामिल होते हैं।

आरबीआई गवर्नर हेतु योग्यता

आरबीआई गवर्नर हेतु कोई विशेष शैक्षिक योग्यता या आयु सीमा निर्धारित नहीं की गयी है, परन्तु सरकार द्वारा गवर्नर के रूप में ऐसे व्यक्तियों का चयन किया जाता है, जिन्हें अर्थव्यवस्था और वित्तीय क्षेत्रक की बेहतर समझ हो। अधिकांशतः आईएएस अधिकारियों को ही गवर्नर के रूप में चयनित किया जाता है।

साख नियंत्रण के उपकरण

भारतीय रिजर्व बैंक देश में प्रभावी रूप से ऋण को नियंत्रित करने और विनियमन करने के लिए मात्रात्मक और गुणात्मक तकनीकों का व्यापक उपयोग करता हैl जब भारतीय रिजर्व बैंक देखता है कि अर्थव्यवस्था में पर्याप्त धन आपूर्ति है और इससे देश में मुद्रास्फीति की स्थिति पैदा हो सकती है तो वह अपने कड़े मौद्रिक नीति के माध्यम से बाजार में पैसे की आपूर्ति में कमी करता है और जब अर्थव्यवस्था में धन की आपूर्ति में कमी हो जाती है तो वह बाजार में पैसे की आपूर्ति को बढ़ा देता हैl एक निश्चित अवधि में मूल्यों की उपलब्ध मुद्रा के सापेक्ष वृद्धि मुद्रा स्फीति या महंगाई कहलाती है।

मात्रात्मक उपाय

आरबीआई द्वारा साख नियंत्रण के मात्रात्मक उपाय के उपकरणोँ के अंतर्गत बैंक दर का निर्धारण, खुला बाज़ार परिचालन (Open Market Operations), तरलता समायोजन सुविधा (Liquidity Adjustment Facility), बाजार स्थिरीकरण योजना (Market Stabilization Scheme), आरक्षित नकदी निधि अनुपात (Cash Reserve Ratio), सांविधिक तरलता अनुपात (Statutory Liquidity Ratio) आदि आता है।

तरलता उस सीमा को इंगित करती है जिस पर किसी परिसंपत्ति की कीमत को प्रभावित किए बिना बाजार में संपत्ति या सुरक्षा को तुरंत खरीदा या बेचा जा सकता है।

बैंक दर वह दर है जिस पर केंद्रीय बैंक व्यापारिक बैंको को प्रथम श्रेणी की प्रतिभूतियों यानि सिक्योरिटीज पर कर्ज प्रदान करता हैl जब नयी सिक्योरिटीज जारी की जाती हैं तो उन्हें प्रथम श्रेणी की सिक्योरिटीज कहा जाता है।

ओपन मार्केट ऑपरेशंस आरबीआई द्वारा बाजार में/से सरकारी प्रतिभूतियों (जी-सेक) की खरीद और बिक्री को कहते हैं। ओपन मार्केट ऑपरेशंस का उद्देश्य एक टिकाऊ आधार पर अर्थव्यवस्था में रुपये की तरलता की स्थिति को एडजस्ट करना है।

तरलता समायोजन सुविधा के माध्यम से आरबीआई रेपो दर और रिवर्स रेपो दर आदि का निर्धारण करती हैl रेपो दर से मतलब उस ब्याज दर से है जो रिजर्व बैंक व्यापारिक बैंकों को शार्टटर्म दैनिक लेनदेन हेतु ऋणों पर वसूल करता है जबकि रिवर्स रेपो दर वह ब्याज दर होता है जो रिजर्व बैंक वाणिज्यिक बैंकों को उनकी शार्टटर्म जमाओ की एवज में अदा करता है।

अतिरिक्त तरलता (या धन आपूर्ति) वापस लेने के लिए आरबीआई द्वारा सरकारी प्रतिभूतियों की बिक्री की जाती है। अर्थव्यवस्था में मौद्रिक नीति के अंतर्गत किया गया यह हस्तक्षेप ही बाजार स्थिरीकरण योजना (एमएसएस) कहलाता है।

आरक्षित नकदी निधि अनुपात (कैश रिज़र्व रेशो, सीआरआर) एक निश्चित अनुपात होता है जिस अनुपात में बैंकों को अपने पास उपलब्ध नकदी का कुछ हिस्सा केन्द्रीय बैंक के पास जमा रखना पड़ता है।

प्रत्येक बैंक को अपनी जमा राशि का कुछ अनुपात केंद्रीय सरकार या राज्य सरकार की वित्तीय प्रतिभूतियों में निवेश करना होता है। यह अनुपात सांविधिक तरलता अनुपात यानि एसएलआर के रूप में जाना जाता है।

गुणात्मक उपाय

आरबीआई द्वारा साख नियंत्रण के गुणात्मक उपाय के उपकरणोँ के अंतर्गत न्यूनतम सीमा अन्तराल, साख की राशनिंग, नैतिक दबाव, प्रत्यक्ष कार्यवाही व आंकड़ों का प्रकाशन आदि आता है।

आरबीआई और सरकार के बीच गतिरोध

अन्य राष्ट्रों की तरह भारत में भी देश के केंद्रीय बैंक व सरकार के बीच आये दिन गतिरोध देखने को मिलता रहता हैl मौद्रिक नीति का निर्धारण, बैंकों का विनियमन, विदेशी मुद्रा बाजार में रुपये का मूल्य प्रबंधन करने और ऋण प्रबंधन आदि को लेकर आरबीआई तथा सरकार के बीच असहमति देखा जा सकता है। वर्तमान में, आरबीआई एक्ट की धारा 7, प्रॉम्प्ट करेक्टिव एक्शन (पीसीए) की रूपरेखा के तहत कुछ नियम और आरबीआई अधिशेष आदि गतिरोध के प्रमुख बिंदु हैंl हालाँकि ये गतिरोध कभी सार्वजनिक नहीं हुए और मौजूदा वक़्त में इनमे से ढेर सारे बिन्दुओं को सुलझा भी लिया गया है।

आरबीआई की स्वायत्तता और जवाबदेही

केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता स्वयं सरकार के हित में है क्योंकि केंद्रीय बैंक स्वतंत्र निर्णय के माध्यम से व्यापक आर्थिक स्थिरता को बनाए रखने में मदद करता है। साथ ही, केंद्रीय बैंक को चाहिए कि वो सरकार और जनता के सम्मुख अपने निर्णय के विभिन्न तर्कों को बेहतर तरीके से रखे, ताकि मुद्दों पर अधिक व्यापक रूप से बहस की जा सके और आरबीआई की जवाबदेही भी सुनिश्चित की जा सके। साथ ही, आरबीआई और सरकार के बीच बेहतर संवाद की भी आवश्यकता है।

यहाँ पर एक बात समझना आवश्यक है कि संवैधानिक रूप से आरबीआई स्वतंत्र नहीं है बल्कि सरकार का ही एक हिस्सा है, और इस प्रकार यह एक उत्तरदायी संस्था है। चूँकि अर्थव्यवस्था पर आरबीआई की सकारात्मक बाह्यताएं होती हैं इसीलिए इसे स्वायत्त संस्था बनाया गया है, और स्वायत्तता की स्थिति में नैतिक दृष्टि से उत्तरदायित्व और भी बढ़ जाता है। बाह्यता किसी आर्थिक गतिविधि का सकारात्मक या नकारात्मक परिणाम होता है जिसका प्रभाव असंबद्ध तृतीय पक्ष पर पड़ता है।